Pandit Jagdev Singh Siddhanti (पंडित जगदेव सिंह सिद्धान्ति )


पंडित जगदेव सिंह सिद्धान्ती का जन्म हरयाणा प्रान्त के तहसील झज्जर जिला झज्जर के बरहाणा(गूगनाण ) गाँव में सन 1900  में विजयादशमी के दिन चौधरी प्रीतराम अहलावत के घर हुआ था |  इनकी माताजी का नाम मामकौर था |  इनके पिता न.प. अंगाल रिसाल में घुड़सवार थे |  वे हिन्दुस्तानी सेना
में प्रथम रहे हैं और वहीं इन्होने अंग्रेजी, उर्दू, हिन्दी पढ़ना लिखना सीखा |  इनकी माता चरखी दादरी के निकट अटैला गाँव की थी |  इनकी माताजी काफी धार्मिक विचारों की थी इसलिए ये बचपन से ही ईश्वर भक्ति में लग गए | 
6 वर्ष की आयु में इन्होने गाँव की स्कूल से पांचवीं पास की, बेरी स्कूल से आठवीं पास की तथा झज्जर से छात्रवृति प्राप्त की |  इन्हे 2  रुपये मासिक छात्रवृति मिलती थी |  जाट हाई स्कूल रोहतक से दसवीं पास की | जब वे 16  वर्ष के थे इनकी माताजी का देहांत हो गया |  1916  में इनका विवाह बिरोहड़ गाँव की नानती देवी से कर दिया गया |
दसवीं पास करने के पश्चात सन 1917  में 35  सिख पलटन में सेना में भरती हो गए |  इस समय इनका वेतन 11  रुपये मासिक था |  इन्होने अपनी मेहनत से 1 ,2 ,3 सेना की श्रेणियां पास की |  जिससे इनका वेतन 20  रुपये महिना बढ़ा दिया गया |  35  सिक्ख पलटन को आगरा छावनी में भेजने का आदेश हुआ |  रेल के सफर में कमांडर से वह सूची गुम हो गई जिसपर इस युवा सैनिक ने जबानी तैयार कर दिया |  बाद में रेल सफाई कर्मचारी को वह सूची मिल गई |  और सूचि कमांडर के पास पहुँची तो दोनों सूचियां एक जैसी मिली |  इस पर खुश होकर कर्नल हार्थी ने जगदेव सिंह को क्वार्टर मास्टर का हैड क्लर्क बना दिया |  और इनका वेतन 45  रुपये महिना कर दिया | एक बार चांदमारी के लिए कपड़ा खरीदना था |  उस समय सरकारी कपड़े की दुकानें थी |  जिनसे कपड़ा खरीदना अनिवार्य था परन्तु जगदेव सिंह ने कपड़ा देसी दुकान से ख़रीदा जो सस्ता था |  जब क्वार्टर मास्टर को पता लगा तो उसने कहा कि "आगे से कपड़ा अंग्रेजी दुकान से ही खरीदना है |  क्योंकि ये पैसे ब्रिटिश सरकार के खाते में जाते हैं | " जगदेव सिंह ने उत्तर दिया कि - "देसी दुकान का पैसा हमारे देश में रहता है |  इससे देश की तरक्की होगी |" ऐसी हिम्मत सेना के इतने बड़े अधिकारी को कहने की इसी युवक की हो सकती थी | 
जगदेव सिंह 10  वर्ष की आयु में ही आर्य समाज के प्रभाव में आ गए थे. जब ये सेना में थे तो वहां पर मांस खाना जरुरी था |  इसका इन्होने विरोध किया |  और कहा कि वेदों में मांस खाना वर्जित है |  इस पर इनका कोर्ट मार्शल हुआ तथा उसी दौरान कोर्ट मार्शल में एक जाट अधिकारी भी था |  तब जगदेव सिंह ने कहा कि मनु स्मृति में मांस खाना वर्जित है | अंग्रेज अधिकारी ने इनको बाईबल हाथ में लेकर इसको चूम कर शपथ लेने के लिए कहा| 
तब इन्होने कहा कि "यह तो ईसाईयों कि पुस्तक है |  मैं इसे नहीं चूम सकता. हमारी धर्म पुस्तक वेद है हम उसी को मानते हैं |" वहां वेद नहीं था| तब ब्रिगेडियर ने कहा कि अच्छा यही शपथ लो कि मैं जो कुछ कहूँगा, सच कहूँगा |  जगदेव सिंह ने वैसा ही किया तथा कहा कि हमारे धर्म में मांस खाना मना है और उसी समय उसने ब्रिगेडियर को महारानी विक्टोरिया का वह आदेश भी दिखाया जिसमें लिखा था कि किसी धर्म में दखल न दिया जाए और न ही किसी के साथ जबरदस्ती की जाय |  इसके बाद वहां मांस खाना सैनिक की इच्छा पर निर्भर कर दिया गया | साढे चार वर्ष नौकरी करने के पश्चात इन्होने सेना से त्याग पात्र दे दिया |

संस्कृत सीखा और बने सिद्धान्ती

इसके बाद ग्रेचुटी का सारा पैसा घर वालों को देकर मटिन्डू गुरुकुल में 20  रुपये मासिक गणित पढाने लगे. वहां पर एक शिक्षक शान्ति स्वरुप से संस्कृत सीखने लगे | अगले वर्ष विशारद की परीक्षा पास की |  इसके बाद लाहोर से सिद्धांत विशारद तथा सिद्धांत भूषण की परीक्षा पास की |  इन्ही दिनों इनकी मुलाकात स्वामी स्वतंत्रतानन्द जी से हुई तथा इनको अपना गुरु बना लिया|  यह लाहोर महाविद्यालय के आचार्य थ | "सिद्धांत भूषण" परीक्षा पास करने के बाद अपने नाम के आगे सिद्धान्ती लगना शुरू कर दिया | 
इनके जीवन की एक अहम घटना है कि गाँव सालान के जेलदार चौधरी अमर सिंह बड़े नेक दिल इंसान थे परन्तु इनकी पत्नी मेहमानों को भोजन नहीं देती थी |  इसको भी जगदेव सिंह ने यह कहकर सीधा किया कि बाहर सारे समाज में मैं तेरा प्रचार करूँगा की जेलदार के घर एक ऐसी कमबख्त औरत है जो मेहमानों को खाना नहीं देती है |  इससे उस औरत का विचार बदल गया तथा वह शेष जीवन में मेहमानों को खाना देने लगी और उनकी सेवा में लीन रहने लगी | 
सन 1925 में इनके पिता श्री प्रीतराम का देहांत हो गया |  जब इनकी आयु २६ वर्ष थी तो इनके घर में एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ जिसका नाम रखा महेंद्र |  किंतु डेढ़ वर्ष कि आयु में ही इस बालक का देहांत होगया |  पुत्र के देहांत से इनके मन में वैराग्य पैदा हो गया |  संसार से विरक्त हो गए और शेष जीवन वेदादि शास्त्रों के पठन पाठन तथा आर्य समाज की सेवा में लगा दिया |  उन्होंने अपनी पत्नी को भी त्याग दिया |  सिद्धान्ती का छोटा भाई इनसे 14  वर्ष छोटा था परन्तु उसकी शिक्षा का पूरा खर्च देते रहे और उसकी पढ़ाई पूरी करवाई | 

यह संसार बड़ा विचित्र है  इसमें  दयानंद को दूध में जहर दिया, स्वामी श्रदानंद जी को गोली मारी |  श्री सिद्धान्ती जी भी अपवाद नहीं थे |  उनको भी इर्शालू धर्म के ठेकेदारों ने संखिया पिलाया जिसको स्वामी विद्यानंद के वैद्यता के कारण बड़े हाकिम नामिसद्दीन की दवा से बचा लिया गया |  सिद्धान्ती जी ने अपने गुरु स्वामी दयानंद सरस्वती की तरह उस दुष्ट ब्रह्मण को क्षमा कर दिया | 

इन्होने ही वर्तमान आर्य महाविद्यालय किरठल (उत्तर प्रदेश ) को इस वर्तमान स्थिति में उसकी महान सेवा करके पहुँचाया |  उस समय इस विद्यालय में केवल पांच ही छात्र थे जिनमें रघुवीर सिंह तथा धर्मवीर शामिल थे | इन्होने अपनी मेहनत व लग्न से विद्यालय को आर्य महाविद्यालय का दर्जा दिलवाया |  इनको एक बार ककोर में प्रसिद्ध विद्वान भगवत प्रसाद से शास्त्रार्थ करना पड़ा जिसमें इनका ही पलडा भारी रहा |  इन्ही दिनों छपरोली चौबीसी ने विवाह के कुछ नियम बनाये ताकि दहेज़ की पीडा से बचा जा सके |  इसमें एक नियम यह भी था कि विवाह कराने वाले पंडित को भी तीन रुपये दिए जायेंगे |  इससे नाराज होकर ब्राहमणों ने फेरे कराने बंद कर दिये तो सिद्धान्ती जी ने ही इन सब रस्मों को बखूबी निभाया | 
सन 1933 में स्वामी आर्य समाजी सन्यासी सर्वदानंद जी की एक पुस्तक 'सन्मार्ग दर्शन' छपी |  जिसमें वेद और आर्य सिद्धांत विरोधी कुछ बातें छपी थी |  सिद्धान्ती जी ने 'आर्य मित्र' नमक पत्र में इनकी आलोचना कर दी |  यह पढ़ कर सर्वदानंद जी ने सिद्धान्ती जी को पत्र लिखा कि या तो माफ़ी मांगो या दिल्ली या देहरादून में मुझ से शास्त्रार्थ करो |  सिद्धान्ती जी मेरठ में आर्य समाज मन्दिर में शास्त्रार्थ के लिए तैयार हो गए |  दोनों में शास्त्रार्थ चला. स्वामी जी पिछड़ गए तो झुंझलाकर कहा कि "ये वेद तो आर्य समाजियों के हैं वास्तविक वेद तो लुप्त हो गए हैं | ' इन वचनों से स्वामीजी की छवि जनता में कम हो गई |  शास्त्रार्थ के बीच में स्वामी जी की ही जाति के ब्रह्मण आचार्य अलगुराय बीच में बातें करते रहे |  सिद्धान्ती जी ने जब कहा कि बीच में बातें मत करो तो उन आचार्य ने कहा कि "आप बकता है, बकते रहो | " वह फ़िर बोलने लगे और सिद्धान्ती जी ने फ़िर टोका तो अलगुराय ने फ़िर वही दोहराया |  ब्रह्मण आचार्य की बातें असह्य होने पर सिद्धान्ती जी से नहीं रहा गया और कहा "श्रीमान जी मैं केवल पंडित ही नहीं हूँ, रोहतक का फोजी जाट भी हूँ |  कुछ और भी कर दूँगा |" यह बातें सुन कर शास्त्रार्थ के प्रधान ने कहा कि शास्त्रीजी या तो चुप बैठो या पीछे जा कर बैठो |  तभी कुछ लोगों ने सिद्धान्ती जी से कहा कि स्वामी जी पूज्य सन्यासी हैं उनका बहुत अपमान हो गया है |  आप यह कह दें कि मेरा समाधान हो गया है |  तब सिद्धान्ती जी ने कहा कि मेरा समाधान तो नहीं हुआ, वैसे ही क्यों कह दूँ | कल वेद के सम्बन्ध में बोला था आज 'सन्मार्ग दर्शन' की अशुद्धियाँ प्रस्तुत करूँगा |  अगले दिन स्वामी जी ने यह कह कर पिंड छुडाया कि मैं इन गलतियों को ठीक करा दूंगा | 
श्री रघुवीर सिंह शास्त्री, सिद्धान्ती जी के परम शिष्य थे |  अपने बाद उन्हें उसी आर्य महाविद्यालय के प्रधानाचार्य बनादिया |  आर्य समाज की शिक्षा-दीक्षा से उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में बड़ी जाग्रति आ गई थी |  लेकिन राजस्थान में शेखावाटी, जयपुर और बीकानेर में राजपूतों का शासन था और वहां किसानों और खासकर जाटों पर बहुत अत्याचार किए जा रहे थे |  जाट किसान बहुत पिछड़ गए थे |  500  गांवों में कोई भी प्राथमिक स्कूल भी नहीं था | उस समय जाटों पर बड़ा अत्याचार किया जा रहा था |  उसी समय 1934 में सीकर में जाट प्रजापति महा यज्ञ किया गया | राजपूत तथा ब्रह्मण संयुक्त रूप से इस यज्ञ को असफल करना चाहते थे| राजपूत इसे अपने शान के खिलाफ मानते थे तथा ब्रह्मण अपने पांडित्य के खिलाफ |  उस समय सिद्धान्ती जी के शिष्य रघुवीर सिंह को शास्त्रार्थ में उतारा गया जब वे महज 16 वर्ष के थे |  एक दिन रात्रि सभा में ब्राहमणों ने चिढ़कर सिद्धान्ती जी से कहा कि क्या आपके शिष्य रघुवीर सिंह जो विषय हम देंगे उस पर बोलेंगे | तब सिद्धान्ती जी ने ब्राहमणों की चुनोती को स्वीकार किया |  उन ब्राहमणों ने रघुवीर सिंह को 'आत्मा' विषय दिया | इस पर रघुवीर सिंह ने बिना रुके एक प्रवाह से ऐसा भाषण दिया कि ब्राहमणों ने दांतों तले उंगली दबा ली तथा बहुत लज्जित हुए | 
सन 1942 में आर्य महाविद्यालय को अपनी बुद्धि व विवेक से बंद होने से बचाया |  समाज विरोधी लोगों ने उन पर दवाब बनाया कि छात्रों को युद्ध में धकेल दो |  इस पर उन्होंने ना कर दिया. भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत सूझबूझ से भाग लिया |  आजादी के पश्चात सन 1950 में सोरम मार्ग मुजफ्फरनगर में उनको सर्वखाप पंचायत का प्रधान बनाया गया. वे गुरुकुल कांगडी के कुलपति भी रहे |  इन्होने पंजाब हिन्दी रक्षा आन्दोलन में भी बढ़ चढ़ कर भाग लिया |  इस आन्दोलन में 70 -80 सत्यग्राहियों ने गिरफ्तारी दी थी. जब सरकार से समझौता हुआ तो आप सबसे बाद में जेल से बाहर आए |  जब प्रो. शेर सिंह ने हरियाणा लोकसमिति बनाई तो आप उसकी टिकट पर झज्जर से सन 1962 में लोक सभा सदस्य बने |  आपने हरियाणा प्रान्त बनाने में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | 
27  अगस्त 1972 को पंडित जगदेव सिंह सिद्धान्ती का शरीर पंचतत्व में लीन हो गया. इनका अन्तिम संस्कार वैदिक रीति से दिल्ली में निगम बोध घाट पर किया गया |  अपने कृतियाँ तथा समाज सेवा के कारण वे अमर रहेंगे| आर्य प्रतिनिधि सभा हरयाणा, दयानन्द मठ, रोहतक में मुख्य कार्यालय का नाम भी इनके नाम पर ही रखा गया है |